कभी घर से बाहर निकलकर तो देखो
कुँवर कुसुमेश
कभी घर से बाहर निकलकर तो देखो.
पलटकर ज़माने के तेवर तो देखो.
जिसे फ़ख्र से आदमी कह रहे हो,
मियाँ झाँककर उसके अन्दर तो देखो.
वो ओढ़े हुए है शराफ़त की चादर,
ज़रा उसकी चादर हटा कर तो देखो.
दबे रह गये हैं किताबों में शायद,
कहाँ तीन गाँधी के बन्दर तो देखो.
बहुत चैन फुटपाथ पर भी मिलेगा,
ग़रीबों की मानिंद सो कर तो देखो.
बड़ी कशमकश है 'कुँवर' फिर भी यारों,
ज़माने से रिश्ता बनाकर तो देखो.
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